लेखक की कलम से

ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो …

✍ ■ नथमल शर्मा

बरसों पहले मशहूर शायर बशीर बद्र की लिखी और अपने शहर के ही देवकीनन्दन दीक्षित सभा भवन में पढ़ी गई ये पंक्तियां गूंज रही आज अरपा तीर में। यहीं क्यों ये पंक्तियां तो देश दुनिया के हर शहर गांव में गूंज रही है। कोविड 19 से उपजी निर्मम शांति तो भंग हो ही चुकी है। शहर अब उस तरह सूनसान और वीरान नहीं दिखते। हजारों किलोमीटर का सफ़र पूरा करके लोग लौट आए हैं। पैरों में छाले, शहरों की कड़वाहट और राजनीति की निष्ठुरता लेकर। वे लौट आए हैं अपने उन मालिकों के स्वार्थी चेहरे लेकर भी जिन्होंने इस संकट काल में उन्हें दो रोटियां नहीं दी। बल्कि छीन ली। वे रास्ते के पत्थरों की ठोकरें लेकर भी लौटे हैं और घरों में दुबके पड़े राजनेताओं की करतूतों का कटु अनुभव भी लेकर आए हैं। अब वे अपने गावों के क्वेरेंटाइन केंद्रों में हैं और लोगों के ज़हर भरे तीर सहन करने को जैसे अभिशप्त हैं। ये आए तो संक्रमण लेकर आए। हमारे घर, गांव, शहर सब संक्रमित हो जाएंगे।

सच है कि इनके आने से आंकड़े बढ़ रहे हैं। पर ये क्या सिर्फ़ आंकड़े होकर रह गए हैं ? ये इंसान नहीं है ? इन्हें जाना और फ़िर इस तरह क्यों आना पड़ा ? इस पर राजनीति और समाज-सेवा से परे हटकर क्यों नहीं बात होती। बरसों से आम आदमी के कल्याण में जुटी सरकारों की इस असफ़लता का परिणाम ही तो है ये लोग। बीस करोड़ से ज्यादा श्रमिकों की रोजाना की आय आज भी तीस रूपये से ज्यादा नहीं है। विद्वान अर्थशास्त्री अशोक मेहता के इस विश्लेषण का आज तक किसी ने जवाब नहीं दिया। देने की हिम्मत भी नहीं है। हिम्मत तो अब सवाल पूछने की भी नहीं रही। खाया, पीया, अघाया सा मध्य वर्ग हमेशा से ही ऐसे सवालों से दूर रहा। पैंतीस किलो चांवल या मनरेगा की अनिवार्यता के बाद इसी वर्ग ने मजदूरों के न मिलने का रोना रोया। रो भी रहे हैं।

तो फ़िर देश भर के कारखानों, संस्थानों, कंपनियों, ठेकेदारों के यहां से ये दस बारह करोड़ मजदूर लौट क्यों रहे हैं ? उससे पहले सवाल ये है कि ये वहां गए ही क्यों ? पैंतीस किलो चांवल या मनरेगा की मज़दूरी लेकर अपने घर गांव में मज़े करते। वो एक बच्ची ज्योति क्यों गई थी और फ़िर क्यों लौटी अपने पिता को सायकिल पर लेकर। वहां घर का सामान बेचकर सायकिल खरीदी और विकलांग (नहीं दिव्यांग) पिता को लेकर देड़ हज़ार किलोमीटर दूर दरभंगा ले आई। अपने आप पर शर्म करने के बजाय हम उसकी तारीफ़ कर रहे हैं। उसे सम्मानित कर रहे हैं। रिपोर्टर उसके घर पहुंच रहे हैं। उस दिन कोई उसे वहीं रोक लेता। दो रोटी खिला देता। किसी बस या ट्रेन से भिजवा देता। नहीं, उससे खबर चटकारेदार नहीं बनती। अब भी राज्य सरकारें इनके लिए अपने गावों में काम देने तैयार है ? स्वदेशी की धारणा अच्छी है। गावों में काम और फिर उनके लिए बाज़ार उपलब्ध कराने के लिए ईमानदार व्यवस्था करने की जरूरत है। ये काम सरकार और समाज मिल कर ही कर सकते हैं। राजनीतिक इच्छाशक्ति और समाज की सहभागिता ही ऐसी योजनाओं को फलीभूत कर सकती है।

अपने छत्तीसगढ में ही फल,फूल,सब्जियों के उत्पादन की अपार संभावनाएं हैं। गावों में छोटे उद्योगों की भी। मरते कोसा उद्योग को बचाने की भी जरूरत है तो बुनकरों के लिए भरपूर काम जुटाने की भी जरूरत है। मछली पालन से लेकर कुक्कुट पालन तक को व्यवस्थित,विकसित किया जा सकता है। वनोपज है तो हेंडलूम भी। गन्ने आज भी खेतों/बाज़ार के लिए प्रतीक्षा रत हैं क्योंकि उसके किसान गन्ने की तरह पेरे जा रहे हैं। रस कोई और पी रहा है। ऐसे अनेक काम हैं। सरकार कोशिश करके कुछ आईटी सेक्टर भी विकसित करे। भिलाई को विकसित कर बंगलुरू और हैदराबाद जाने से हम अपने युवाओं को रोक सकते हैं। पलायन मनुष्य का स्वभाव या स्वाभाविक परिणति है इस सुविधा जनक धारणा से निकल कर मानना होगा कि यह मज़बूरी है। उसे यहीं काम मिल जाए तो क्यों जाएगा और कहीं। एक लोक कल्याणकारी सरकार अपने इस दायित्व से दाएं बाएं होकर कैसे बच सकती है।

अपार संभावनाओं वाले अपने राज्य में पलायन को तभी रोका जा सकता है जब यहां उन्हें पर्याप्त काम मिले। नशे की बुराइयों पर भाषण देने वालों में नैतिक साहस ही नहीं बचा कि वे सत्ता में आकर अपने ही भाषणों पर अमल कर सके। लकड़ी से बनी कुर्सियां मादकता से सींची जाती है। सत्ता की खेती शराब से लहलहाती है। सत्ता इसी समाज का अंग है और समाज ही इस बुराई को अपनाए हुए है। शराब के खिलाफ़ रैली और भाषण देकर थके समाजसेवी शाम रात को दो पैग लेकर थकान मिटाते हैं। समाज अपनी ही बुराईयों में जकड़े हुए है। सिर्फ़ शराब ही क्यों गुटका, तंबाकू, गुड़ाखू जैसे नशे की गिरफ़्त में है लोग। उससे भी आगे और भयावह है ड्रग्स। सिर्फ़ सरकार पर ही जिम्मेदारी डालने वाले हम अपने दायित्व से कैसे बच सकते हैं भला।

ये लाबी (नहीं माफिया) सत्ता के गलियारों में सबसे रसूखदार हैं। किस नोटशीट पर कौन सी कलम से कौन सा अफ़सर क्या लिखेगा ये ही तय करते हैं। ये ही अपने खिलाफ़ आंदोलन कौन करेगा ये भी तय करते हैं (अब तो यह कोई छुपी बात भी नहीं )। तो इस तरह ये चेन है। इसके हर दांते एक दूसरे जुड़े हुए हैं। मजदूरों के पलायन, स्थानीय रोज़गार से शुरू हुई बात कहां तक पहुंच जाती है। इसे समझने- समझाने के लिए कोई तैयार भी तो नहीं दिखता। बात तो देवकीनन्दन दीक्षित सभा भवन से भी शुरू हुई थी। वह भवन तो कब से चुप है। वह ही क्यों सारे चौक चौराहे सूने पड़े है। कभी यहाँ जिंदगी गूंजती थी आज पुलिस की सीटियां बजती है। डंडे फटकारने पड़ते हैं। महामारी कोविड 19 से खुद को कैसे बचाएं, यह भी अभी तक हम तय नहीं कर पाए हैं।

अब तो रोटियां बांटने वाले भी जैसे थकने लगे हैं। तस्वीरें बहुत छप गई। कोविड 19 से लड़ते साठ दिन से ज्यादा हो रहे हैं पर ख़तरा अभी भी बना हुआ है और थके लोग अब हमें समझाने लगे हैं कि अब तो इसी के साथ जीना है। हर जिला एक अलग सत्ता हो गया है जैसे। राज्य की सीमाएं सील है। अपने ही देश में हम पराए से जीने को अभिशप्त। अरपा के पानी सा सूख गया है लोगों का दिल जैसे। एक समय था जब अपने शहर में हम लगभग सबको नाम से जानते – पहचानते थे, आज चेहरे से भी नहीं पहचानते। बिलासपुर की इस पीड़ा को कोई समझने तैयार भी तो नहीं दिखता। बात यह बहुत दूर तक चली जाएगी, इसलिए आज अधूरी ही कि वक्त पूरा करेगा। क्योंकि:- कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो।

–लेखक देशबंधु के पूर्व संपादक एवं वर्तमान में दैनिक इवनिंग टाइम्स के प्रधान संपादक हैं।

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