लेखक की कलम से
फिर ऐसा क्यों …
डायरी से
मैंने पत्थर मार; न किया कभी किसी नदी को परेशां/
ना मरोड़े पांख तितली के–
सींचे है स्नेही हाथों से; गाल फूलों के—-
ना सताई आत्मा; जीव जंतु की!
बस उदास हताश बैठ बूढ़े
बरगद तले—
किया है तारों के उगने का इंतजार /
कल रात आई /चिट्ठी चांदनी की_सखी! होत काहे उदास!
तेरे प्रियतम के तरह;
मेरा चांद भी जा दुबका है/ बादलों के आंचल में!!!
© मीरा हिंगोरानी, नई दिल्ली