जिन गलियों को छोड़ आई…
जिन गलियो को छोड़ आई ,
वहाँ से हवा अब भी आती कभी-कभी,
अनकहे भावों से भीगों जाती,
विचारों में डूबो सी जाती,
जिन गलियों को छोड़ आए कभी
उनमें कई पेड़,कई काँटे
कई बेर,कई बेनामी फूल थे,
पर उनकी खुशबू अब भी डूबो जाती कभी-कभी,
जिन गलियों को छोड़ आई कभी!
वहाँ हुआ करता आशियाना,
धड़कती धड़कनों का फसाना,
सुनहरे मंजरों का कारवाँ,
अब भी मुझे रह रह सताती
वो हवा अब भी यहाँ आती कभी कभी!
दिल से रूह तक होकर गुजर जाती,
जिन गलियों को छोड़ आई कभी!
वहाँ की हलचल चंचल हुए जाती,
अब भी वहाँ शामों-शहर होते,
अरबों के मुकाम बनते,कई पोस्टर और श्लोग्न से गुंजायमान होते,
फतेह के परचम अब भी लहलहाये करते,
माईक पर नए ऐलान भी होते,
कुकुरमुक्तों से भरे अनगिनत मकान होते,
पर वो गली छोड़ आई कभी,
जहाँ के ख्याल अब भी भिगोते कभी कभी!
पर अब भी वहाँ जीवन तमाम होते,
सुनहरे किरणें मुझ तक आती कभी- कभी,
अतीत से भीगों, बता जाती
वह जाकर कहाँ जा पाता हमसे दूर?
घर किए रहता हमारे अंदर,
संसार बसता उनका,
हमकदम बने चलता,
हमारे साथ “अज्ञात जगत” तक भी
सब छोड़ने के बाद भी !
-अल्पना सिंह (कोलकाता), शिक्षिका,कवयित्री