लेखक की कलम से
प्रकृति के अत्याचारी….
बहुत सस्ते हो गये इन दिनों
बीज वैमनस्य अत्याचार शोषण के
धीरे-धीरे उग रही हैं फसलें
दानवों की कतार हो रही है खड़ी
हाथों में लिये विविध हथियार
मानवता का करने संहार
हमारे पूर्वज निकालकर आये थे
जंगल से गाँव की तरफ
और हम सभ्यता के चादर तले
असभ्यता का गाँव बसा रहे हैं
उभर रहे हैं हम भविष्य में
प्रकृति के अत्याचारी के रूप में
झुक जाता है शीश हमारा
कुटनीति चालाकी मक्करों के आँगन में
गीता का ग्रंथ लुप्त हो रहा है
हर घर के मंदिरों के प्रांगण से
न्याय के चौखट पर क्षण- प्रतिक्षण…
बेहरहमी से दब रही अन्यायी के हाथों
©सरिता सैल, कारवार कर्नाटका