लेखक की कलम से

तभी तो आज अकेली थी वो …

 

कमसिन, अल्हड़, दीवानी सी

कम उम्र में ही

बड़ी सयानी सी,

छोटी उम्र में ही

ब्याह दी गई, फिर

आ गई ससुराल,

टीका-वीका लगा

लोटा ऊपर-नीचे घुमा

सास के आदेश पर

दाएँ पैर से

अनाज का बर्तन लुढ़काया

और दाखिल हो गई

घर के भीतर।

 

बस यहीं मिला था

आदर, सत्कार

पहली और

आखिरी बार।

 

शायद

दिखावा था,

भविष्य की तस्वीर का

भुलावा था,

खुली किताब

सी थी वो,

सबके लिए काम करती

पूरा दिन खटती,

सबकी ज़रूरतों का

ख्याल रखती,

मन में कुछ भी

बात ना रखती

और बेबाक बोलती।

 

पर अफ़्सोस

कि वो किताब

अनपढ़ों के हाथ में थी,

जिनके लिए

किताब में लिखा

हर अक्षर काला था,

उनकी समझ में

कुछ भी नहीं आता था,

किसी को कुछ

आभास न था

उसका कोई भी

खास न था।

 

सबकी बातें

सुनती थी वो,

अपनी संग-संग

कहती थी वो,

सदा ही सच

वो बोलती थी,

तभी तो आज

अकेली थी।

 

©डॉ. प्रज्ञा शारदा, चंडीगढ़                

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