लेखक की कलम से

कुछ औरतें …

कविता

 

 

ख़तरनाक होती हैं

कुछ औरतें

झांक लेती हैं

भाँप लेती हैं

भीतर तक

हर स्थिति

घर की सयासत में

रचती हैं चक्रव्युह

ये अनपढ़ गवार औरतें

सीधी -सपाट नहीं होती

ख़तरनाक होती हैं

कुछ औरतें

 

हर प्रश्न के एवज़ में

उठती हैं नया प्रश्न

किसी नेता की तरह

जवाब की मोहताज नहीं होती

ख़तरनाक होती हैं

कुछ औरतें

 

छिपकली -सी  छिप कर

सेंध लगाती हैं घरों में

रिश्तों में उगाती हैं शूल

बहार की हक़दार नहीं होती

ख़तरनाक होती हैं

कुछ औरतें

 

तहस -नहस कर देती हैं

बसा -बसाया कोई घर

किसी की खुशियाँ देख

कभी खुश नहीं होती

ख़तरनाक होती हैं

कुछ औरतें

 

शतरंज नहीं जानती मगर

चलती हैं जीवित मोहरे

माँ -बाप ,भाई -बहन ,पति -बच्चों

किसी की वफ़ादार नहीं होती

ख़तरनाक होती हैं

कुछ औरतें …

©डॉ. दलजीत कौर, चंडीगढ़

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