लेखक की कलम से

पितृछाया …

 

इस दिन को कैसे याद करूँ कहूँ गुरूपर्णिमा का शुभ दिन

या फिर पितृछाया छिना अमाबस बनकर यही वो दिन।।

 

सजल नयन से पितृतर्पण करते ही जा रहा हूँ मैं

लेकिन मन में पिता दर्शन का लालशा भी पाल रहा हूँ मैं।।

 

वर्ष बीत गए हैं पूरे सात अब तो मुक्ति की आश करू

किस तरह से मृत्यु गर्भ से आपको आजाद करूं ।।

 

जन्म मरण के सास्वत सत्य को कर रहा हूँ मैं स्वीकार

सात वर्ष के अंतर बाद भी अब लौट आओ अपनों के पाश।।

 

ढूंढ रही है पथरीली अखियां आपके आने की आश

सूरत मूरत में ढूंढ रहा हूँ आपकी परछाईं आप।।

 

ईश्वर से बस एक निवेदन मत छीनो मातपिता का साथ

मौका मिले तो भूलोके आकर समय बिताओ उनके साथ ।।

 

फिर यह निश्चय जानो छीन न पाओगे उनका साथ

अगर छीन जाएगा उनका छाया बिलख बिलख कर रोओगे आप।।

 

©कमलेश झा, फरीदाबाद                                                                

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