लेखक की कलम से

पापा भी तो देवतुल्य है …

 

माँ

माँ शब्द का स्मरण करते ही,

नज़रों के सामने

एक सख्शियत उभरती है

जो देवतुल्य है।

उनकी प्रशंसा में भाव

शब्द बन कविताओं,

गीतों, निबन्धों  में

अविरल बिखर जाते हैं।

और पापा का क्या?

 

क्यों वो अक्सर गुमनामी

की गलियों में

किसी अंधेरे कोने में

खो जाते हैं?

थोड़ी सी रोशनी डालेंगे

तो उनके अन्तर्मन के

द्वंद को, उनके निशब्द

प्यार को समझ पाएंगे।

 

औलाद के लिए

उनकी आंखों में पलते

हजारों हजार सपने।

उन सपनों को असलियत

का जामा देने के वास्ते

अथक प्रयास करना।

क्यों नज़रों को नज़र नहीं आता?

बच्चों का कसौटी पर

खरे ना उतरने पर,

पापा का गुस्सा करना,

डांटना फटकारना

क्यों हमेशा याद रहता है?

 

अपनी औकात से बढ़ कर

बच्चों को सुख सुविधा देना।

जेब साथ नहीं दे तो

कर्ज के नीचे दबते जाना।

उनकी अलमारी से

कपड़ों का कम होते जाना।

काम के घण्टों का बढ़ते जाना।

खाने की थाली से

व्यंजनों का घटते जाना।

क्या ये सब मायने नहीं रखता?

क्या सही है

पापा के प्यार को कम आंका जाना?

 

हां वो पापा हैं।

पुरुष हैं।

भावुक होने से डरते हैं।

भावनाओं को शब्द

देने से कतराते हैं।

बच्चों के दुःख में

दुखी होते हैं।

मगर पलकों में आंसू

छुपा चुप रह जाते हैं।

 

पापा वसंत ऋतु के मानिंद हैं।

जो संतान के जीवन में

चुपके से खुशियां भर देता है।

दुआएं करता है।

परिश्रम करता है।

पर कुछ भी जताता नहीं।

कोई श्रेय लेता नहीं।

बस इसी लिए उनका त्याग

कोई देख नहीं पाता।

कोई समझ नहीं पाता।

पापा भी तो देवतुल्य हैं।

पापा भी तो अमुल्य हैं।

 

©ओम सुयन, अहमदाबाद, गुजरात          

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