लेखक की कलम से

मोल भाव …

“देखो भाई साब, लेनै है तो ल्यो नहीं तो जा डरी गली ” लाल लाल टमाटर खरीदते हुए प्रदीप को दस साल के नन्हे दुकानदार से ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी। उसे देखते हुए प्रदीप मुस्कुराया “अरे यार इत्ते नखरे काये दिखा रये, लोक डाउन वैस ई चल्लौ तुमाई जा सब्जी डरी डरी फिरे कल। बीस रुपैया किलो दैदो ,हम दो किलो लै लें यार …। “

“भाई साहब दिमाग ना खाओ जिते मिल र ई होय सो जाकैं ले ल्यो।” नन्हा दुकानदार चालीस रूपये के एक किलो टमाटर से एक भी रुपये कम करने को तैयार नहीं था। “अरे यार गुस्सा काहे हो रयै।” अब प्रदीप को भी नन्हे दुकानदार से मोलभाव करने में मजा आने लगा था। उसे जानने, समझने का प्रयास करके वह उसे टटोलने में लगा हुआ था। “

अच्छा चलो न हमाई न तुमाई पच्चीस रूपैया किलो ठैर ग ई। चलो तीन किलो तौल दो।” अब नन्हे दुकानदार को गुस्सा आ गया। तीस रुपैय्या से एक कम न हुयैं … समझ गए ..न आज ,न कल ,न परसों। प्रदीप की हंसी छूट गई ” अरे यार पाँच रुपैया के लाने काये लड़ रयै।” अब उस नन्हे दुकानदार की आंखें नम थीं। ” पांच रुपैया…..आपके लानै कछु न हुयैं। हमाई रोजी रोटी ऐईसैं चल र ई ..। स्कूल छोड़ कैं हम जौ #मोलभाव ऐस ई न ईं सीख गए।” अब प्रदीप के पास बोलने के लिए कुछ नहीं था।

©डॉ रश्मि दुबे, गाजियाबाद, उत्तरप्रदेश                     

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