लेखक की कलम से

मेरा गाँव ….

दुखों से दूर सुख की छाँव में रैन बसेरा था। कुछ ऐसा

बचपन गाँव में बीता मेंरा था।

खुली आँखों से सपने बुनते पेड़ की छाँव में अलहड़ पन

से मदमस्त झूमते गाते बेफ्रिकी की राहों पे।

न कोई बनावटी पन था, भोजन की थाली में खाते प्रसाद की भांति,नानी की मीठी फटकार जिसमें छिपा होता ढेर सारे प्यार और हमें खिलाने की चिंता का सार। पेडो के झुरमुट की ओट आम खट्टे चटका जाते ।एक की हो गलती माली से सब दोस्त मिल कर ड़डे खाते थे।चनवन्नी पाकर हम घंटो इतराते थे।

गाँव में हर घर में राज़ हमारा चलता है। हर एक रहने वाला

मेंरा मार्गदर्शन करता था।

गाँव की सौंधी मिट्टी की खुशबू तन में रची बसी है।देश हो विदेश , मेंरी नानी के गाँव से प्यारा कुछ भी नही।

शुद्ध पवन ,निर्मल जल,शुद्ध विचारो से अद्धत नजारा ओर कहाँ। समय बदले करवट पल भोजन पकड़ा रहना सहन

लेकिन मेंरे दिल को मिलता तभी सुख और चैन ।सूखी रोटी प्यार की मिठास पर गुड़ की डाली खाकर अंतर्मन हो जाता

भावविभोर। बचपन की स्मृतियों में आज भी जीवित है ।

मेंरा गाँव प्यार,रिश्तों की गराईयो से अटूट अंतःकरण से बंधा

नानी का गाँव। मेंरा खेड़ा………

 

©आकांक्षा रूपा चचरा, कटक, ओडिसा

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