मेरी अधूरी रचना …
हा, मेरी रचना अधूरी हैं,
खुद को रचना जरूरी हैं,
बस यही एक रचना अधूरी हैं,
पग पग पर रब खुद आ,
बहुत कुछ सिखाता हैं,
कितने ही रूपो में वो,
दरश सच का कराता हैं,
पर मैं खोयी कुछ मैं में ही,
तभी तो रचना अधूरी हैं,
खुद को ही जब रच न पायी,
फिर हर रचना अधूरी हैं,
वसुधा का कण कण भी,
गुरु रूप में आता हैं,
कहता धारण कर कुछ गुण,
सदा ये बतलाता हैं,
मैं तो खोयी धन को पाने,
गुण को न पाती हूँ,
खुद में ही एक अधूरी रचना,
बस बन कर रह जाती हूँ,
रब कहता देख मुझे तू,
कण कण में,जन जन में,
दीन दुखी में,खिलते बचपन मे,
मात पिता के आशीष में,
न दिखता मुझको तो रब,
बस स्वार्थ ही दिखता हैं
रह जाती फिर रचना अधूरी,
कुछ मेरे निर्माण की,
रूह सिखाती,देख प्रेम को,
हर अंतस में रहता हैं,
न उलझ फिर बैर भाव मे,
मन बरबस ये कहता हैं,
पर छोटी छोटी बातों में,
मैं बस उलझता रहता हैं,
रह जाता बस मैं ही केवल,
और कुछ न रहता हैं,
रह जाती फिर अधूरी रचना,
कुछ मेरे निर्माण की,
ऐसे ही आ जाती घड़ी,
वसुधा से प्रस्थान की,
रह जाती फिर अनगिनत,
बस अधूरी सी रचनाएं,
बस अधूरी सी रचनायें।।
©अरुणिमा बहादुर खरे, प्रयागराज, यूपी