यादों में “माँ” …
जब याद तुम्हारी आती,
दिल में उठती टीस नई!
स्मृतियों के चित्र-पटल पर
उमड़ते चित्रों की मधु रेखा!
बारंबार देख मुझको, हंस देती
उड़ेलती वात्सल्य रस मुझपर!
मैं सिक्त हो अनुपम माया से,
नव शक्ति, तप्त क्षणों में पाती!
हाथ धरे चल पाई मैं मां
गिरती, उठती, संभलती बेला में!
अब यादों का ही संबल है
पाती नहीं स्वयं को अकेला मैं!
आ पहुंची, तुम संग संध्या-बेला तक,
पहुंचेंगी उस तीरे भी तुम संग!
मिलन-बिछुड़न ही जीवन, पर
बिछुड़न पश्चात भी मिलन क्रम है!
यह सोच मुझे बस बसना,
जीवन तो रैन-बसेरा है!
प्रातः की बेला आएगी,
रश्मिओ संग ले जाएगी!
तब नहीं कभी बिछुड़न होगा,
मैं, तुम और मोक्ष-क्षण होगा!
तुम्हारी नैसर्गिक मुस्कान होगी,
मेरे लिए सिर्फ स्वर्ग-समान होगी!
हृदय-प्रदेश में व्यथा निराली है,
पर आंखें शुष्क, अंतस भारी है!
अनंत यात्रा पर निकली हो न मां,
उस यात्रा की अब मेरी बारी है!
जीवन एकांकी सा लगता,
ना संगी, ना साथी सा लगता!
मन-जगत लगता अरण्य सा
कहीं विस्मित, सशंकित, भयाकुल
सा लगता!
कब ह्रदय ठौर पाएगा,
जीवन सत्य अपनाएगा!
हर्ष -विषाद ही अंग, जीवन का,
‘मां’ आप मूर्धन्य हो जीवन का!
है अमरत्व-रिश्ता मेरा मां
क्या पार्थिवता-अपार्थिवता?
हर कोण के संधि स्थल में,
मैं, तुम और एकत्व है!
अदृश्यता में तुमको पाती हूं
भावों में गले मिल बतियाती हूं
जीवन की आपाधापी में,
यादों में सिर्फ और सिर्फ,
तुम्हें ही पाती हूँ!
©अल्पना सिंह, शिक्षिका, कोलकाता