मां …
जिन्दगी दुःख-सुख के लहरों
संग बह रही है
कटु अनुभूतियों को दे रही है
जिनको अपना समझी
कितने अपने हैं?
जिनको जाना तक भी नहीं
वे बन बैठे अपने हैं
जिंदगी आवरण से ढकी है
धुंध के पीछे कब तक लुकी है
छटने की प्रतीक्षा है
प्राकृतिक या कृत्रिम रूप में…
मां
तुम थी तो सब गुथियों को
स्वतः ही सलझाती
बन मेरी आंतरिक साहब कार्य
मुझसे दुगनी करवाती
अब मैं तो बारिश की एक बूंद
सी बन गई हूँ
कहां से चली
कहां गुम हो रही हूं?
तुम होती तो पार तक पहुंचाती
जीवन तथ्यों से भान तक करवाती शांत पर उन्मादित सी बह निकली तोड़ बांध किनारों का कह निकली
मां
तुम होती तो दुगनी साहस पाती
हाथ तुम्हारा धरे प्रपातमय हो जाती मां कमी रह गई आपकी जीवन में
पर आशीष जो दे गई हैं
उसीका अवलंबन पा रही
सब तुम्हारा है
मानकर बह निकली हूं
जलकुंभ नहीं मानसरोवर बन
निखरी हूँ
मां
तुम होती तो बता देती
राह मंजिल की है अभी जो
हिमाच्छादित है
मां भ्रमित हूं मैं
पर प्रतिदिन फलित हूं मैं
तुम्हारे आशीषों से
मिसिंग यू मां
आई लव यू
©अल्पना सिंह, शिक्षिका, कोलकाता