लेखक की कलम से

मां …

ग़ज़ल

 

है कदमों में जन्नत मां के, करीब आ कर तो देखो ,

कभी ये हँसीं ख़याल जिहन, में ला कर तो देखो।

 

बा-खुदा उसे कभी दु:खी न, करना तुम मेंरे अज़ीज़ों,

यक़ीनन उस पाकीज़ा को, दिल में बसा कर तो देखो।

 

ता-उम्र अहसान तले दब जाएगा, उसके ये वक़्त भी,

दुनिया का कोई सख्श, फ़र्ज़-ए-मां अदा कर तो देखो।

 

दरख्त से गर शाख जुदा हो जाए, कभी जाने-अन्जाने,

उस शाख-ए-दरख्त पे कोई, फल ऊगा कर तो देखो।

 

राह-ए-ज़िंदगी में सब कुछ, हांसिल हो सकता है मगर,

अपनी ज़िंदगी में खोई हुई मां, फिर पा कर तो देखो।

 

खो के मां को अपनी ये, अहसास हुआ मुझे निराश,

मेंरी ज़िंदगी का वो बचपन, कोई ला कर तो देखो।

©विनोद निराश, देहरादून, उत्तराखण्ड

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