प्रेमरोग …
जब आंखें दो से चार हो,
मन में उठती कोई ज्वार हो।
जब दिल किसी को याद करे,
उनसे मिलने को फरियाद करे।
जब याद में वो बस जाता है,
तो प्रेमरोग कहलाता है…
जब धक -धक करते धड़कन हो,
जब उनसे मिलने की तड़पन हो।
जब वक्त -बेवक़्त कोई श्रृंगार करे,
हर पल किसी का इन्तजार करे।।
मन रह -रह के कहीं खो जाता है,
वो प्रेमरोग कहलाता है…
जब आंखों में सपने पलने लगे,
जब ख्वाबों में उठकर चलने लगे।
जब हर मौसम सिंदूरी हो,
हर हाल में मिलना जरूरी हो।।
जब तन्हाई तड़पाता है,
वो प्रेमरोग कहलाता है…
जब आंखों में नींद न चैन हो,
जब मन हर पल बैचेन हो।
कानों में लगे शहनाई बजे,
हाथों में नाम की मेंहंदी सजे।।
जब तन -मन जल- जल जाता है
वो प्रेमरोग कहलाता है…
खुद का खुद पे ना काबू हो,
दिल तन्हा मन बेकाबू हो,
कभी प्रेम पूरित इकरार हो,
कभी उलझन या तकरार हो।
मिल करके कोई बिछुड़ जाता है
वो प्रेमरोग कहलाता है…
©श्रवण कुमार साहू, राजिम, गरियाबंद (छग)