लेखक की कलम से

महिलाओं का केवल सम्मान नहीं, उनकी बात भी सुनें …

अभी हाल ही में देश भर में हजारों जगहों पर अंतरराष्ट्रीय दिवस पर सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर महिलाओं के आयोजन हुए। ज्यादातर आयोजनों में औपचारिक तौर पर महिलाओं की बहादुरी की, उनकी कुशलता की और उनके त्याग तपस्या की दुहाई दी गई लेकिन उनकी गंभीर समस्याओं पर कहीं कोई चर्चा नहीं हुई। जरूरत थी और है कि महिला संबंधित सभी आयोजनों में उनकी जटिल बनती जा रही माहवारी अर्थात पीरियड्स या मासिक धर्म की समस्याओं को जोर शोर से उठाया जाए। हमें अब सोचना चाहिए कि

क्या औरतों को पीरियड्स के दौरान ऑफ़िस के काम से छुट्टी मिलनी चाहिए? क्या ये उनका अधिकार नहीं है? क्यों अब तक भारतीय कंपनियां इस दिशा में नहीं सोच रहीं? सरकार को इस पर सोचना चाहिए। क्या हमें इसके लिए क़ानून लाना होगा? इसी के साथ माहवारी के नाम जुड़े अंध विश्वास और पाबंदियों के खिलाफ जागृति अभियान चलाने चाहिए। माहवारी को लेकर ऐसे कई सवाल काफ़ी वक़्त से पूछे जा रहे हैं और अनेक तरह के अंध विश्वासों का प्रचार प्रसार बहुत धड़ल्ले में किया जाता। देश में माहवारी की समस्या पर कोई केंद्रीय चर्चा नहीं होती। इसको महिला संबंधित मुद्दा बता कर हमेशा हाशिए पर धकेल दिया जाता है।

पिछले सत्तर सालों में इससे संबंधित एक बिल 2017 में अरुणाचल प्रदेश के सांसद ने निजी स्तर पर पेश किया था। कुछ महिला संगठन भी सरकार का ध्यान इस मुद्दे पर समय समय आकर्षित करते रहे हैं पर उनकी कोशिश भी नक्कारखाने में तूती की आवाज हो गई है।

वह बिल था मेन्स्ट्रुएशन बेनिफ़िट बिल इसका प्रस्ताव अरुणाचल प्रदेश से सांसद निनॉन्ग एरिंग ने रखा था। कांग्रेस पार्टी के नेता निनॉन्ग लोकसभा में पूर्वी अरुणाचल का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं। अपने देश में पहली बार मासिक धर्म से जुड़ा इस तरह का कोई बिल संसद के सामने रखा गया।

इसमें कहा गया है कि सरकारी और प्राइवेट सेक्टर में नौकरी करने वाली महिलाओं को दो दिन के लिए ‘पेड पीरियड लीव’ यानी पीरियड्स के दौरान दो दिन के लिए छुट्टी दी जानी चाहिए और इन छुट्टियों के बदले उनके पैसे नहीं काटे जाने चाहिए।

मेन्स्ट्रुएशन बिल को निनॉन्ग एरिंग ने लोकसभा में पेश तो किया पर इसको समर्थन नहीं मिला और परिणामस्वरूप कोई कानून नहीं बना। एरिंग का कहना है कि उन्होंने अपने आस-पास के अनुभवों को देखकर यह बिल लाने का फ़ैसला किया। उनका कहना है कि मेरे परिवार में मेरी पत्नी और दो बेटियां हैं। मेरी पत्नी पीरियड्स में भयानक दर्द से गुज़रती है। मेरी बेटियां भी मुझसे माहवारी से जुड़ी दिक्कतों के बारे में बात करती हैं।

इसलिए ये बात हमेशा मेरे दिमाग में थी। एक दिन मैंने ख़बर पढ़ी कि मुंबई की एक प्राइवेट कंपनी ने महिलाओं को पीरियड के पहले दिन छुट्टी देने का फ़ैसला किया है और यहीं से मेरे मन में बिल का विचार आया। एरिंग बहुत दुख के साथ बताते हैं कि कुछ लोगों ने मुझसे यहां तक पूछा कि मैं महिलाओं का इतने पर्सलन मुद्दा उठाने वाला कौन होता हूं। क्या एक पुरुष औरतों की तकलीफ़ नहीं समझ सकता?

निनॉन्ग कहते हैं कि उन्होंने ये प्रस्ताव एक आदिवासी के तौर पर रखा है। एरिंग उत्तर-पूर्व के एक आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। उनके मुताबिक उनके यहां आदिवासी समाज में मासिक धर्म को बड़े ही सामान्य तरीके से लिया जाता है। यहां न तो इसे शर्मिंदगी का विषय समझा जाता है और न ही कोई इस बारे में बातचीत से कतराता है।

गौरतलब है कि यह स्थिति भारत के बाकी हिस्सों में ख़ासकर उत्तर भारत में बिल्कुल नहीं है,जो भी है हमारे क्षेत्र से एकदम उलट हैं। देश के ज्यादातर क्षेत्रों में माहवारी के बारे में आज भी इशारों में और कानाफूसी करके बात की जाती है। और पुरुषों को महिलाओं की समस्या की गंभीरता का अंदाज़ा तक नहीं होता।

मौजूदा समय में लोकसभा में सबसे अधिक महिला सदस्य हैं और राज्यसभा में भी 26 महिला सदस्य हैं। इन सभी को एरिंग के बिल का समर्थन कर जरूरी कानून बनवाना चाहिए। लोकसभा की महिला सदस्यों को जगाने के लिए राज्यों की विधान सभाओं की महिला सदस्यों को इस मुद्दे को जोर शोर से उठाना चाहिए। महिला संगठनों को भी इसके लिए अभियान छेड़ने चाहिए।

 

©हेमलता म्हस्के, पुणे, महाराष्ट्र                                  

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