लेखक की कलम से

जिन्दगी की साँझ …

ज़माना उसको ठहरा सा समन्दर

कह रहा है

जिसके अन्दर दर्द का एक सैलाब

रह रहा है

उसके चेहरे की हंसी हर किसी ने देखी

नहीं दिखा आँखों से जो अश्के -दरिया

बह रहा है

उसके लफ़्जों की कड़वाहट सबने सुनी

ना समझ सका कोई भी जो उसका दिल

सह रहा है

एक एक कर सब तन्हा छोड़ गये उसको

अपने ही बाग में जो दरख़्त धीरे धीरे हर

दिन ढह रहा है

ग्रहण का चाँद सी हो गयी जिंदगी

जो पल-प्रतिपल बस गह रहा है

स्वप्न विहीन आँखों में अंतहीन पीड़ा भरी रातों का सफर

निरन्तर कर तय रहा है।

 

©अनुपम अहलावत, सेक्टर-48 नोएडा                         

Back to top button