लेखक की कलम से

लाडली !…

आज जन्मदिन है तेरा

समझ नहीं आता

क्या उपहार दूं तुझे

जो तेरे लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती स्वरूप के अनुरूप हो

तू नभ तक फैला धरती का विस्तृत आंचल है।

कुछ भी ना होने में सब कुछ होने की उम्मीद है

मेरे कटे पंखों में उड़ने की लालसा जगाता

संभावनाओं का हराभरा सावन है

उल्लास में लिपटा बसंत,

भरोसे की गर्मी,

और शीत में मिला आलिंगन है तू

होंठों की हंसी, जुबान की मिठास है

मेरी बंजर मनोभूमि पर पारिजात सी खिली मेरी लाडो

तेरे आगे सब शून्य और सूक्ष्म सा लगता है

इस दुनिया में

कुछ भी तो ऐसा नहीं

जो तेरी मां तुझे दे सकें भेंटस्वरूप

सिवाय दुआओं के….

 -प्रतिभा सिंह, मेरठ, उत्तर प्रदेश

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