मेरे गांव की इक भोर ….
मेरे गांव की इक भोर,
पो फटने से पहले जाग,
उठ, बैठता किसान,
कंधे पर लादे हुए हल,
हाथों में थामे बैलों की डोर,
भागा जा रहा है खेतों की ओर,
मेरे गांव की इक भोर।
गांव का ब्राह्मण नंगे बदन,
कंधे पर डाले गमछा,
हाथों में लिए लोटा,
राम-राम जपता,
भागा जा रहा है तालाब की ओर,
मेरे गांव की इक भोर।
अनाज पीसती औरतें,
घरों से आता चक्किओं का शोर,
दूध दोहती मां के,
पीतल के कलश से,
दूध की धार का आता शोर,
मेरे गांव की इक भोर।
न्यार चरते ढोर,
दूध बिलोती दादी की,
मधानी की डोर मचाती है शोर,
मेरे गांव की इक भोर।
कंधे पर टांगे,
किताबों का थैला,
हाथों में पकड़े,
लकड़ी की तख्ती,
सिर में चुपड़े तेल,
भागे जा रहे हैं बालक,
नंगे पांव स्कूल की ओर,
मेरे गांव की इक भोर।
सिर पर धरे मटका,
महावर रचे पैरों में पहने झांझर,
इठलाती पायल छनकाती पनिहारने,
चली जा रही हैं पनघट की ओर,
मेरे गांव की इक भोर।
आंगन बुहारती औरतें,
वो पीपल की बयार,
पक्षियों की चहचहाट,
दाना चुगती चिड़ियां मचाती हैं शोर,
मेरे गांव की इक भोर।
©लक्ष्मी कल्याण डमाना, छतरपुर, नई दिल्ली