लेखक की कलम से

दुहरी त्रासदी थी इंदिरा गांधी की …

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यह अहमदाबाद का छात्र आन्दोलन पूरे राज्य में फैला। तरीका बड़ा गांधीवादी था। प्रत्येक विधायक के आवास पर छात्र बैठ जाते और विधानसभा अध्यक्ष को त्यागपत्र भेजने पर ही उनका धरना खत्म होता। कई विधायक भूमिगत हो गये थे, तो आन्दोलनकारियों ने मुकाबले का नया तरीका खोजा। वे पड़ोसियों से अनुरोध कर विधायकों के परिवारजनों का हुक्कापानी बन्द कराते। पत्नी अपने विधायक पति से कहती कि मुहल्ले के बच्चों ने उनके बच्चों के साथ खेलने से मना कर दिया। भाजीवाला, धोबी, डाकिया, नाई, आखिर में सफाई कर्मचारी तक ने विधायक के आवास पर जाना बन्द कर दिया। विवश विधायकजी ने त्यागपत्र भेज दिया। अध्यक्ष से विधायक ने आग्रह किया कि उनकी सदस्यता खत्म कर दें।

दिलचस्प घटना तो बड़ौदा से अहमदाबाद जानेवाली राज्य परिवाहन निगम की बस में हुई। कांग्रेसी विधायक, अस्सी—वर्षीय माधवालाल शाह को बस यात्रियों ने पहचान लिया। उन सब 54 मुसाफिरों ने कंडक्टर से विधायक शाह को उतारने की मांग की। उसके मना करने पर सभी अन्य यात्री उतर गये। अकेले माधवलाल शाह बैठे रहे। तब ड्राइवर ने कांग्रेसी विधायक की अन्तर्चेतना से बात की कि, ”माधवभाई, आप तो बापू के दाण्डी मार्च में साथ थे। अब भ्रष्टाचार के इन गांधीवादी विरोधियों की प्रार्थना भी स्वीकारें।”  शाह बस से उतर गये। विधायकी भी छोड़ दी।

संघर्ष के तीसरे सप्ताह तक विधानसभा तीन चौथाई खाली हो गई। संवैधानिक संकट उभरा। राज्यपाल ने कोरम के अभाव में विधानसभा भंग कर दी। नवनिर्माण छात्र आन्दोलन सफल तो हो गया था। नतीजन राष्ट्रपति शासन (कांग्रेस का अप्रत्यक्ष राज) थोप दिया गया।

मगर अब गुजरात विधानसभा को पुनर्जीवित करने में खीझ से आप्लावित इंदिरा गांधी ने तनिक भी रुचि नहीं दिखायी। एक युगांतकारी घटना की याद आती है। मोरारजी देसाई आमरण अनशन पर बैठे। विवश होकर इंदिरा गांधी ने गुजरात विधानसभा का चुनाव (अप्रैल 1975) को कर दिया। तय था कि इंदिरा कांग्रेस जीतेगी। मगर जनता मोर्चा का संयुक्त चुनाव अभियान भी विलक्षण था। संसोपा की ओर से मधु लिमये, जार्ज फर्नान्डिस, मृणाल गोरे, मधु दंडवते आये। अटल बिहारी वाजपेयी तब बरगद (संसोपा) और जार्ज फर्नान्डिस दीपक (जनसंघ) के लिये वोट मांग रहे थे।

जनसंघ और संसोपा मिलकर सूत कातती महिला (संस्था कांग्रेस) का समर्थन कर रहे थे। मगर वाह री किस्मत! बहुमत से जीतकर भी जनता मोर्चा की सरकार गिरा दी गयी। इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला उसी दिन आया। तेरह दिन बाद इमरजेंसी घोषित कर दी गयी। एक दिन मैंने देखा कि मेरे बड़ौदा जेल बैरक में भूतपूर्व हो चुके मुख्यमंत्री (बाबूभाई जशभाई पटेल) कैदी बन कर आ गये। वे पूर्ण गांधीवादी थे। मगर हम सब पर बलपूर्वक इंदिरा सरकार को डाइनामाईट से उखाड़ने का इल्जाम था। सजा थी फांसी। और फिर इमरजेंसी तो आ ही गयी थी।

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने प्रधानमंत्री को अवैध सांसद करार दिया था। दोनों घटनाएं 12 जून को ही होनी थी। आज के दिन।

 

©के. विक्रम राव, नई दिल्ली                                           

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