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आरज़ुओं की क़तार में …
आरज़ुओं की क़तार में
खड़े-खड़े मैं थक गया
वो सामने था मेरे
मैं पहचान भी न सका उसे
जिसकी मुझे तलाश थी
न वो मिला न चैन मिला
फ़ासला मिटने को था
तभी क़तार थम गई
धोखा नज़रों का हुआ
वो जाने कब निकल गया
मैं देखता ही रह गया
आरज़ुओं की क़तार में
जो सामने है छोड़ उसे
फिरता रहा यहाँ-वहाँ
मैं पा नहीं सका उसे
और चाह बढ़ती रही
मैं निहारता ही रह गया…!
©अनिता चंद, नई दिल्ली