लेखक की कलम से

सपने में…

जगहें, स्थान निष्ठुर होते हैं
मरे हुए अपनों की तरह

सोते सोते भी खुल जाती है
अचानक आंँख , देख लेती हूँ

जब कभी स्वपन में
कड़ियों की छत
लकड़ी का दरवाजा
कोठरी के भीतर कोठरी
चूल्हे की बुझी राख
में बची हुई चिंगारी

सुख के कुछ गर्मी की
छुट्टियों के शांत , खुशगवार दिन
खो जाती हूँ कुछ आवाज़ों में
दृश्यों में ढूंढती हूँ रंग
एहसास देह की गंध का

लौटती हूँ मिट्टी के पास
मलती हूँ देह पर
करती हूँ प्यार
कि छूट जाएगा ये सब
खुलते ही आँख

छोड़े गए पदचिन्हों को
छू लेती हूँ कि निशान
हो जाएंगे धूमिल जैसे
हो गए खत्म दादा
दादी और पिता

खंडहर हो चुकी जगहों
पर भी उग आते हैं फूल
बिखरती है खुशबू
महकने, चहकने लगती हैं
रातरानी की तरह

लेकिन केवल सपनों में……

 

©सीमा गुप्ता, पंचकूला, हरियाणा                                                                 

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