लेखक की कलम से
मैंने भी मांगे थे पंख…
मैंने भी मांगे थे पंख,
उड़ सकूं अंबर में,
बादलों के सीने को चीर कर,
सूर्य की प्रथम किरणों को चूमूं ,
मैंने भी मांगे थे पंख।
सागर की इठलाती लहरों पर,
चिड़िया की तरह तैरूं और इठलाऊं,
खांऊ हिचकोले, लहरों पर झूलूं ,
सागर के किनारों को चूमूं ,
मैंने भी मांगे थे पंख।
जाऊं क्षितिज के उस पार,
उस पार छिपा है क्या?
रहस्य देखूं ,
रुई जैसे बादलों पर पैरों को धंसाऊ,
नाचूं और कूदूं , बादलों पर झूलूं ,
भरकर उड़ान, चांद-तारों को चूमूं ,
मैंने भी मांगे थे पंख।
उडूं नील-गगन पर,
तेज हवाओं से खेलूं ,
चहचहाऊं, बारिश की बूंदों से खेलूं ,
नीले आकाश पर बने, इंद्रधनुष के झूले पर झूलूं ,
मैंने भी मांगे थे पंख।
-लक्ष्मी कल्याण डमाना, राजपुर एक्सटेंशन, छतरपुर, नई दिल्ली।