लेखक की कलम से

कितने किस्म के हिन्दू …

 

पितृपक्ष चल रहा है। सत्रह सितम्बर (बृहस्पतिवार) को श्राद्ध का अंतिम दिन रहेगा। गंगाजमुनी हिन्दू इस प्रथा का उपहास करते हैं। छद्म आस्थावान छिपे-सहमे रीति से परिपाटी  निभाएंगे। कई श्रद्धालु एक दफा जीवन में गया-तीर्थ जाने के बाद निबट जाते हैं। किन्तु बहुतायत में अन्य जन सारी रस्में मन से निभाते हैं। इसी आखिरी समूह का तरीका मुझे बहुत भाता है।

 

पुरखों का आदर मरणोपरांत भी करना यह दर्शाता है कि नयी पीढ़ी कृतघ्न नहीं है। ऐसे मृत्यु के पश्चात वाले आचरण हमें सूर्योपासक पारसियों, ख्रिस्तीजन, जैन तथा बौद्धों से सीखना चाहिए। वे अपने सभी निर्देशित रस्मों का विधि-विधान के अनुसार निर्वहन करते हैं।

 

अर्थात पुण्यकर्म से लाज, हिचक क्यों?

 

यहाँ  पाँचवे मुग़ल बादशाह शाहाबुद्दीन मुहम्मद शाहजहाँ (खुर्रम) की उक्ति का जिक्र कर दूं। श्राद्ध पद्धति का उल्लेख अतीव व्यथा से शाहजहाँ ने किया था। अपने बेटे औरंगजेब आलमगीर से बादशाह ने कहा, “हिन्दुओं से सीखो। वे अपने मरे हुए वालिद (पिता) को भी तर्पण में पानी पिलाते हैं और तुम हो कि अपने जीवित पिता को टूटे घड़े में आधा भरकर ही पानी देते हो, प्यासा रखते हो !” बाप से बेटे ने गद्दी हथियाते ही आगरा के किले में बादशाह को कैद कर रखा था।

 

मसलन पारंपरिक रिश्ते निभाने में हिन्दू को शहंशाह ने बहुत बेहतर बताया था।

 

आर्यसमाजी भी हिन्दुओं में होते हैं जो मूर्ति-भंजक (इस्लामिस्टों की भांति बुतशिकन) हैं। वे श्राद्ध का बहिष्कार करते हैं। हालाँकि वे वेदोक्त रीतियों को तो मानते हैं। मगर यह नही स्वीकारते कि अथर्ववेद (18-2-49) में उल्लिखित है कि पूर्वजों का स्मरण करना चाहिए : “येनः पितु: पितरो ये पितामहा तेभ्यः पितृभ्यो नमसा विधेम।”

 

हिन्दू संप्रदाय के समाजशास्त्रीय प्रबंधन हेतु यह प्रथाएं रची गई थीं। किन्तु नौ सदियों तक के इस्लामी राज में नगरीय क्षेत्रों से ये परम्पराएँ लुप्तप्राय हो गयी हैं। आंचलिक क्षेत्रों में दिखती हैं।

 

पिण्डदान के विषय में कई भारतीयों के भ्रम को दूर करने हेतु मैं लन्दन के एक महान वैज्ञानिक का अनुभव बता दूं। चूँकि वह गोरा अंग्रेज था तो हम गेहुंए भारतीय, युगों से दासता से ग्रसित रहे, तो शायद विचार करलें और मान भी लें कि आत्माएं होती हैं और विचरण करती रहती हैं। उनसे संवाद संभव है। आत्मिक सुधार हेतु सहायता भी ।

 

इसी सन्दर्भ में लखनऊ विश्वविद्यालय में साइकोलॉजी विभाग के हमारे एक साथी ने कभी (1959) एक लेख का उल्लेख किया जिसे ब्रिटेन के महान भौतिक शास्त्री लार्ड जॉन विलियम्स स्ट्रट रेले ने लिखा था। जॉन विलियम्स को 1904 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला था। वे बड़े धर्मनिष्ठ थे और पराविज्ञान में निष्णात थे। प्लैंशेट पर वे बहुधा अपने दिवंगत इकलौते पुत्र से संवाद करते थे।

 

एक बार पुत्र ने उन्हें बताया कि वह एक अत्यंत ज्वलनशील स्थान पर है। मगर भारतीय आत्माएं यहाँ से शीघ्र मुक्ति पा लेती थीं क्योंकि उनके भूलोकवासी रिश्तेदार आटे से गेंदनुमा ग्रास बनाकर कोई रस्म अदा करते थे। अर्थात पिंडदान ही रहा होगा।

 

अतः अब श्राद्ध प्रथा में यकीन करना होगा।

 

 

    ©के. विक्रम राव, नई दिल्ली    

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