लेखक की कलम से

कैसे जिऊँ मैं…

शहनाज़ गिल को समर्पित कविता

बीच राह पर छोड़ दिया हाथ?

टूट गयी साँसों की डोरी

ठहर गई जीवन की धार

घोर अंधेरे में डूब गयी रात।

 

धड़कन थम सी गई

साँसें रुकने लगी

न रात कटे न दिन

रुठ से गए सपने सारे

कैसे जिऊँ मैं तेरे बिन।

 

गले से उतरे कैसे निवाला

बिन तेरे चलूँ मैं कैसे

सोऊँ कैसे रातभर

ऐसे रुठा न कर मेरी जान

आ लग जा गले से मेरे

जी लूँ जी भरकर।

 

इतना निर्दयी मत बन बाबू

थाम ले हाथ मेरा

दर्द का ये सैलाब

पार करु मैं कैसे

कैसे भुलाऊँ प्यार तेरा।

 

तुझे कोई फ़र्क पड़ता नहीं

तेरा प्यार बिखर गया ज़मीं पर

ज़िन्दा लाश बन गई हूँ मैं

आँसुओं के मोती

बन गये समंदर।

 

आ जा ना भर ले बाहों में मुझे

समेट ले ना

मेरे बिखरे एहसासों को यार

मेरे घर को तेरी आदत है

मेरे फूलों को

तेरी चाहत का है इन्तज़ार।

 

करुँ तो क्या करुँ

जाऊँ तो कहा जाऊँ मैं

बेचैन ज़िंदगी में

सुकून कहाँ से लाऊँ

तेरे बिन कैसे जिऊँ मैं?

 

बोल तेरे बिन जिऊँ कैसे मैं?

 

-मनीषा कर बागची

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