लेखक की कलम से

कठिन राहें …

 

कठिन हैं राहें,

चलना आसान तो नहीं।

बिछे हों पुष्प हर राह में

ये मुमकिन तो नहीं।

क्या हुआ जो अपने हिस्से के

कांटे उगे हैं राहों में।

क्या हुआ जो कोई जिद्दी कांटा

चुभ जाए पावं में।

इतनी सी जिद्द तो अपनी भी है।

मंजिल को पाने की जिद्द

अपनी भी तो है।

रास्ता कैसे रोक लेंगी अड़चनें

आखिर उनकी भी तो हद है।

 

अंधेरे आएंगे,

रास्ते धुंधलाएंगे।

कदम बहकेंगे।

हौसले टूटेंगे।

मगर वो राही ही क्या

बैठ जाए जो हार कर।

मंजिल तो प्रियतमा है

राह तक रही है जो

साजो श्रृंगार कर।

बेवफाई का इल्ज़ाम

सिर पर लेना नहीं है।

बस यही सोच कर

राही को राह में रुकना नहीं है।

 

किनारे पर बंध कर रहना

किश्ती की शान नहीं है।

इंतजार है उसे भी मांझी का

कहने की बात नहीं है।

लहरें हों ऊंची समंदर में

तो क्या ग़म है।

एक अदद किश्ती है पास में

पतवार भी है हाथ में

तो ये क्या कम है?

सागर में नाव उतार

तभी तो पहुंचेगा उस पार।

तूफ़ान तो सफ़र के साथी हैं।

होंसलों ने ही तो

उनको मात दी है।

 

आसान नहीं हैं जिंदगी की राहें।

मुश्किलों को स्वीकार कर

फैला कर बाहें।

ना शिकायत कर

ना भर ग़म की आहें।

बस मुस्कुरा कर चलता चल

मंजिल भी तक रही है

तुम्हारी ही राहें।

 

©ओम सुयन, अहमदाबाद, गुजरात          

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