गुरु बिन ज्ञान…
सही ही कहा गया है कि…
बिन गुरु ज्ञान कहाँ ते पाऊँ
अर्थात, बिना गुरु के ज्ञान असंभव है।
गु- अर्थात-अंधकार
रु-अर्थात-प्रकाश, तो
अज्ञानरुपी इसतम से ज्ञानरूपीपुंज की ओर ले जाने वाले मार्गदर्शक गुरु या यूं कहे कि शिक्षक कहलाते हैं। शिक्षक के भी कुछ अपने अर्थ या महत्व हैं।
शिक्षणं करोति यः सः शिक्षकः
अर्थात, जो हमें शिक्षित करे वे शिक्षक।शिक्षा शब्द संस्कृत के शिक्ष धातु से बना है, जिसका अर्थ सीखना या सिखाना होता है।
शि-से-शीर्ष तक
क्ष-से-क्षम्यभाव रखनेवाले
क-से-कमी अर्थात हमारे त्रुटियों को क्षमाकर हमें शीर्ष तक जो पहुंचाये वही शिक्षक या गुरु कहलाये।
हमारे जीवन में हमारी प्रथम गुरु माँ ही होती है जो हमें सबसे तोतली वाणी के साथशब्दों की उच्चारण का शुरुआत करना सीखाती है और इसीलिये घर को प्राथमिक पाठशाला और माँ को प्रथम शिक्षक कहा गया है।
आज शिक्षकदिवस के अवसर पर दुनिया के तमाम प्रथम गुरु माँ जिन्होंने अपने बच्चों को अपनी गोद से सीखना या शिक्षित किया उन सभी देवी माँ मातृशक्ति को नमन है।
शिक्षक अर्थात(गुरु की)महत्व को दर्शाते हुए कबीर जी ने बहुत ही अच्छी बात कही है कि। –
गुरु बिन माला फेरते
गुरु बिन देते दान
गुरु बिन दोनों निष्फल
पूछो वेद पुराण।
राम, कृष्ण से कौन बड़ा
ऊन्हों भी गुरु कीन्ह
तीन लोक के वे धनी
गुरु आगे आधीन।
ये जगतविदित है कि बाल्यावस्था में ही रामचंद्र जी गुरु वशिष्ठ के आश्रम एवं कृष्णजी गुरु संदीपनी के सामीप्य में शिक्षा प्राप्त करने गये थे।
अतःज्ञान के लिये गुरु की परम आवश्यकता होती है तभी हम अज्ञानतारुपी भंवर से ज्ञानरुपी दिव्यमोती को प्राप्त कर पाते हैं।
बाल्यकाल में अपने पिताजी से एक क्लासिकल म्यूजिक सीखी थी जिसके बोल कुछ इस तरह थे-
जौं गुरु कृपा करे रे नर
कोटि क पाप कटे पल छिन मे
गुरु की महिमा हरि सों भारी
वेद पुराणन सबहिं विचारी
ब्रह्मा, व्यास रटे पलछिन मे
मूलतः हमारे जीवन में गुरु वो शिल्पकार हैं जो हमें अपने अनुभव एवं ज्ञान द्वारा हमें हमारा आकार प्रदान करते हैं।
अतः शिक्षार्क्षियों के लिये शिक्षक की अति आवश्यकता है क्योंकि अशिक्षारुपी तम से हम तभी निकल सकते हैं इसीलिये कहा गया है- बिन गुरु ज्ञान कहाँ ते पाऊँ।
और, अंत में किसी ने बहुत ही सुंदर कहा है कि…..
सुर सुंदर सजाने को साज बनाता हूँ
नौसिखिए परिंदे को बाज बनाता हूँ
चुपचाप सुनता हूँ शिकायतें सबकी
तब दुनियां बदलने की आवाज बनाता हूँ
समंदर तो परखता है हौसले कश्तियों की
पर मै डूबती कश्तियों को जहाज बनाता हूँ।
इति शुभम, वंदेमातरम्
© सुप्रसन्ना झा, जोधपुर, राजस्थान