लेखक की कलम से
चंचल मन…
प्रेम के वशीभूत
पागल पंछी लगातार उड़ता गया
दिन-रात की परवाह किए बिना
सीमा को पाने पंख फैलाते गया।।
अपना सबकुछ हारने को तैयार
न भूख -प्यास की चिंता
न अपने जीवन की कोई परवाह
बस पागल प्रेमी की भाँति उड़ता गया।।
हर साँस में कुछ पाने की चाहत
हर आस में कुछ हारने की आहट
पागल पंछी न जाने क्यों
फिर भी उड़ता गया।।
मैं भी उस पंछी जैसी उड़ती गई
कामयाबी को हासिल करने
व्योम की सीमा नापने मैं तो उड़ती गई
न देखा कभी भी पीछे मुड़कर मैंने।।
पल-पल प्यास बुझाने
कटुक निंबोरी को चबाने
संसार की बाधाओं से जूझने लगी हूँ
हाँ, अब पंख फैलाकर अब मैं उड़ने लगी हूँ।।
मोर की तरह नाचकर
बादल की तरह गरज कर
नदियों की कल-कल सी बहती हुई
सागर से अब मिलने चली हूँ।।
चंचल मन कुछ अब ढूंढ रहा है
शांति की खोज है
सफलता की तलाश है
हाँ, मेरी आत्मा मेरे पास है।।
© डॉ. जानकी झा