लेखक की कलम से

रिमझिम कर आई बरखा …

 

रिमझिम बरखा बरसे

काले – काले बादल गरजे ।

 

सुंदर लगती धरा हमारी

महके देखो फूलों की क्यारी।

 

नदी सरोवर छलकने लगे

मोर पंख फैलाने लगे।

 

मन गाता तराने नए

गम को भूले कुछ नए अफसाने लिए।

 

चहुँ दिशा हरियाली देखो

मेंढ़क टर्र टर्र करते सुनो।

 

बच्चे कागज़ के नाव बनाते हैं

झूम-झूम नाचते गाते हैं।

 

कितना प्यारा ये मौसम है

लगता कितना मनभावन है।

 

मुरझाए पौधों ने नव कलेवर है धरा

रंग बिरंगे फूलों से बगिया है खिला – खिला।

 

प्रेमी युगल भी प्रसन्न हैं

जैसे सारी खुशियां संग हैं।

 

वाह बरखा तेरे क्या कहने

तू न हो तो हम हो सहमे- सहमे।।

 

©डॉ. जानकी झा, कटक, ओडिशा                                  

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