लेखक की कलम से

बेटी …

जन्म लेते ही सबका एक ही कहना

बेटी हुई है , बेटा नहीं

पर क्या बेटी किसी से कम है

हर फर्ज निभाती है

माता-पिता की सेवा सहित

सास-ससुर को भी सम्मान देती है

अपनी संस्कृति को सहेज कर

समाज को नई राह दिखाती है

बेटी है इसलिए दो कुल की लाज बचाती है

मां-बाबा के आंखों का तारा बन

उनके सपनों को पूरा करने की हर कोशिश करती है

नयनों में भर आए आंसू भी तो

चुपके से वह पी जाती है

बेटी, बहू, बहन हर किरदार निभाती है

कलेजे पर पत्थर रख

अपनों को अपना बनाती है

न चाहत आसमान में उड़ने की

फिर भी चिड़ियों सी चहचाहती है

घर लगे सुना जो बेटी घर पर न होती है

वंश आगे बढ़ाने में भी अहम भूमिका निभाती है

फिर क्यों बेटी होने की खुशी नहीं मनाई जाती है

घर, शिक्षा, धर्म या हो राजनीति

हर जगह बेटी परचम लहराती है

सुई में धागा लगाने से लेकर

हवाई जहाज तक उड़ाती है

फिर क्यों कुछ जगहों पर आवाज़ उसकी रौंदी जाती है

बेटी है इसलिए तो अपना हर कर्ज चुकाती है।।

 

©डॉ. जानकी झा, कटक, ओडिशा                                  

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