लेखक की कलम से

मिट्टी के दीये…

दीप मिट्टी के हमने जलाये बहुत,
प्रेम का दीप अब तक जलाया नहीं।
दोनों हाथों से है जिसने आशीष दी,
कर्ज उसका अभी तक चुकाया नहीं।।

रोशनी सिर्फ बाहर अगर हो गई,
ऐसे अंतर अंधेरा मिटेगा कहां?
कुछ दिये नेह के ग़र न भीतर जले,
मन मे पसरा हुआ तम कटेगा कहाँ?

लग गईं हैं कतारें दियों की बहुत,
तेल बाती में हरदम उलझते रहे।
ज्ञान के दीप ने जब भी रौशन किया
प्रश्न जीवन के सारे सुलझते रहे।

जो प्रतीकों मे किस्से हैं बिखरे हुए,
सारे बुद्धों के अनुभूत संदेश हैं
ज्योति मे जो भी गहरा छिपा अर्थ है,
ज्ञान की रौशनी का ही परिवेश है

जो प्रकाशित दियों मे तुम्हें दिख रहा,
इन उजालों मे फैला हुआ ज्ञान है।
एक से दूसरे को प्रकाशित करो,
बस यही तो दिवाली का विज्ञान है।।

विश्व सारा भरा आज संताप से
है अंधेरा बहुत रोशनी के तले।
प्रेम का विश्व बंधुत्व का इक दिया,
है प्रतीक्षा सभी को कि कैसे जले?

अश्रु पोंछे किसी के तो दीपक जले,
दर्द बांटा किसी का तो दीपक जले।
दीप करुणा का हो तेल हो अश्रु का
राह रौशन हो ऐसे तो दीपक जले।।

आओ ऐसी दीवाली मनाएं सभी,
शांति हो विश्व में सौम्य व्यवहार हो
प्रेम ,सौहार्द्र से मिल के सारे रहें,
नृत्य हो,गीत हो,और सदाचार हो।।

आओ ऐसी दीवाली मनाएं सभी,
आओ ऐसी दीवाली मनाएं सभी।।

 

 

©दिलबाग राज, बिल्हा, छत्तीसगढ़

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