लेखक की कलम से

क्या आप मुझे सुन पा रहे हैं …

व्यंग्य

मार्च का अंतिम सप्ताह रहा होगा। दिन कौन-सा था याद नहीं है मुझे। ऐसे भी कौन सा अच्छा या सुनहरा दिन था उन दिनों जो याद भी रह जाए? अगर याद भी रह जाए तो मेरी रुचि दिन के सुनहरेपन में रहती है न कि उस सुनहरेपन को चादर की तरह ओढ़े उस दिन में। इसलिए मुझे याद भी सुनहरापन ही रहता है, दिन नहीं।

..तो ऐसा कोई सुनहरापन था नहीं उन दिनों, हां, कुछ धूसरापन जरूर था। शाम का धुंधलका जो बालकनी में पसर रहा था वह इस धूसरेपन को और गहरा कर रहा था। इतना गहरा कि धीरे-धीरे अंधेरा छाने लगा था। दिन-भर की उदासी भी इकट्ठी होते-होते मन को बोझिल करने लगी तो स्वाभाविक था कि मन को थोड़ा हल्का करने की जुगत करता। मन भी तो आखिर एक सीमा तक ही बोझिल रह सकता है न?

सीमा से बाहर मन के बोझिल होने का मतलब है मन बिल्कुल बैठ जाएगा, ऐसा भी बैठ जाएगा कि फिर उठ नहीं पाएगा और मन अगर उठ नहीं पाए तो आप समझ सकते हैं कि व्यक्ति कैसे उठ पाएगा? व्यक्ति भी तो आखिर मन की ही साकार अभिव्यक्ति है न? और ऊपर उठना (मेरा मतलब उतना ऊपर से नहीं कि “दिवंगत आत्मा को शांति मिले” वाली कोई बात हो) तो सब व्यक्ति की चरम इच्छा और परम कामना है लेकिन ऊपर उठने के लिए तो हल्का होना पड़ता है। हल्का होने लिए दिन भर की इकट्ठी उदासी मन से गिरानी ही पड़ती है और उदासी गिराना इतना आसान नहीं।

उदासी के छाने का भी अलग शास्त्र है। उदासी होती है भारी, जैसे कोई पत्थर भारी होता है लेकिन कहा जाता है कि वह छा गई। अजीब विरोधाभास है। यह कोई अकेला विरोधाभास नहीं है। जीवन में और भी कई विरोधाभास हैं जिनके बरक्स यह विरोधाभास कुछ भी नहीं। यही नहीं, विरोधाभास हमेशा अजीब ही होते हैं। फिर भी हम कहते ही रहते हैं कि अजीब विरोधाभास है।

परन्तु इस अजीब बात में एक अच्छी बात यह होती है कि पथरीली उदासी सिर्फ छाकर रह जाती है या छँट जाती है, बरसती नहीं है कभी। वैसे भी पत्थरों की बारिश में भींगना ही कौन चाहता है? कौन अकारण अपने सौष्ठव पार्थिव गठन को विद्रूप करना चाहेगा? हम कोई रुई या कागज तो हैं नहीं कि भींंगकर भारी होना हमें सहज स्वीकार हो। हम तो भारी होकर भींगने के आदी हैं ताकि भारीपन चू-चूकर गिर जाए और हम अंततः हल्का होने की इच्छित अवस्था प्राप्त कर लें।

भींगने के लिए कहीं और जाना नहीं है। बस बैठ जाना है। किसी सत्संग में रम जाना है। कबीर ने भी यही सलाह दी है-“सत्संग में अमरित बरसै, इस सत्संग में लाभ बहुत है तुरत मिलावै गुर से।”… तो यहां अमृत झरते रहता है और मन भींग- भींग उठता है। उठ-उठकर शांत होता चला जाता है। उदासी का ख्याल ही नहीं रहता। चेतना पर कोई अनजानी-सी खुमारी चढ़ने लगती है। ‘देख्यौं चाहत कमल नैन को निसि दिन रहत उदासी” वाली अंखियां तृप्त हो जाती हैं। दिनभर की सारी उदासी काफूर हो जाती है। उनके वचनों से जो मकरंद टपकता है उसमें भींगना मतलब बिल्कुल हल्का होकर ऊपर उठने जैसा है। ग्रेविटेशन के विरुद्ध लेविटेशन, चित्त का उर्ध्वगमन आदि साक्षात् अनुभूत होता है।

जी हां, मैं किसी और सत्संग की बात नहीं कर रहा। यह सत्संग कहीं और नहीं आपके भी मोबाइल पर लाइव चलते रहता है। कई ज्ञानी-मुखर महापुरुष और महती स्त्रियां आजकल वहां लाइव प्रकट होते हैं। सोशल मीडिया पर उनका लाइव बखूबी जहां लोगों को बरबस खींचता है वहीं फिजिकल डिस्टेंसिंग’ का ‘आटो-मोड में पालन भी हो जाता है। उनके कमलवत् उद्भासित हो रहे मुख- मंडल को बिना मास्क धारण किए लाइव में बेखौफ़ निहारा जा सकता है। नैन तो पूछिए ही मत। एक कमल में दो-दो कमल खिलते नहीं देखा आपने?

हां कमल से याद आया, प्राचीन काल में कमल जितना बाहर खिलता था उससे ज्यादा कविता में खिलता था। उन दिनों कविता में बाहर से ज्यादा कीचड़ थी या नहीं, यह तो अनुसंधान का विषय है। खैर, अभी तो कमल कविता को छोड़ राजनीति में खिल रहा है। कहीं कविता में रही-सही कीचड़ सूख तो नहीं गई? या सारी कीचड़ अब कहीं राजनीति में तो जमा नहीं हो गई? कमल सिर्फ कविता से ही नहीं गया। वह अध्यात्म के ‘परम -पद’ से भी अपदस्थ हो चुका है। सहस्रार कमल तो तब खिलता था जब शरीर कीचड़ था। अब शरीर कीचड़ नहीं है, कमल है। पैर कमल, नैन कमल, मुख-कमल आदि आदि।

यही नहीं, ऊँ मणिपद्मे हूं से मणि गायब हुई, पद्म मरोड़ दिया गया और ल्हासा में कोई छिं छें छं वाले बैठकर बस हुं हुं कर रहे हैं। पद्म की जितनी दुर्गति वहां हुई, भारत में उसकी उतनी हो प्रतिष्ठा हुई। यहां यह राष्ट्रीय पुष्प तो हुआ ही, सम्मानित नागरिकता का पहचान- पत्र भी बन गया। कविता- प्रदेश से पद्म का सम्मान- प्रदेश की ओर बहिर्गमन पद्म के लिए अवमूल्यन था या मूल्योन्नयन यह तो कोई पद्मश्री पद्म- विभूषण ही बता सकते हैं।

जो भी हो, कविता तो कमल की अवसरवादिता या बेबसी भूल नहीं पा रही। कमल से बिछड़ने का दर्द बहरहाल वह भी लाइव होकर बयां करना चाहती है भले ही राजनीति उसके नेटवर्क का खूंटा उखाड़ देती है। दूसरों के खूंटे उखाड़ना, राजनीति यही तो करती आई है। फिर भी कविता की ज़िद है, कवि भी कम हठी नहीं कि लाइव की कोशिश न हो।

खैर, बहुत विषयांतर हो गया लगता है। आपके लिए यह विषयांतर हो सकता है, लेकिन प्रसंगवश विषयांतर को विषयांतर नहीं कहते। उदासी का लाइव होने से गहरा संबंध है। आधुनिक मनुष्य की उदासी के मूल में ही है आत्म-प्रकाशन में असफलता। इसे लाइव होकर दूर की जा सकती है चाहे उदासी अपनी हो या दर्शक की। इसमें बुरा ही क्या है?

…तो कल अचानक एक मैसेज आया। ” मित्र, आज आधी रात को ठीक बारह बजे, जब दुनिया सो रही होगी और जब मैं जाग रहा होऊंगा (यानी मुझे जब नींद नहीं आ रही होगी), मैं लाइव रहूंगा। आप अधिक से अधिक संख्या में जरूर देखें, शेयर करें ताकि लोगों को जगाया रखा जा सके क्योंकि सुबह तक का ही समय है। सुबह का सूरज कयामत लेकर आने वाला है…”

मेसेज देखते ही उदासी और बढ़ गई। मित्र का लाइव देख कर मेरी क्या हालत होगी, मैं सोच ही रहा था कि मेरी नज़र एक और लाइव पर गई। देखकर दिल बाग बाग हो उठा। एक बूढ़ा आदमी मुस्कुराता हुआ प्रकट था। आंखों पर गोल चश्मे, उसके पीछे जैसे कोटर से झांकती दो पैनी आंखें…मैं पहचान गया। जिसे दुनिया पहचानती थी मैं कैसे नहीं पहचानता? और इस आदमी के चेहरे से तो पूरा देश ही पहचाना जाता है। परन्तु इन्हें कभी सुना नहीं था, साक्षात् देखना तो दूर की बात थी।

अभी तक वे अपने सामने दायें- बायें देखे जा रहे थे। मुस्कुराहट आ रही थी, जा रही थी। वे बीच-बीच में गला भी साफ कर रहे थे जैसे जल्दी ही कुछ कहनेवाले हों। आखिर आवाज़ निकल ही गई- “आप मुझे सुन पा रहे हैं? …मित्र, हां, हां, लगता है आप सुन पा रहे हैं अभी क्योंकि मैं अभी बोल नहीं पा रहा हूं …।”

मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि ये बार-बार क्यों पूछ रहे हैं “आप सुन पा रहे हैं मुझे?” क्योंकि मैं तो सुन रहा था, और भी सुन ही रहे होंगे। इन्हें सुनने वालों पर भरोसा क्यों नहीं है? फिर हम सुनने वाले को सिर्फ कान खोलना ही तो है, कोई बिछाना तो है नहीं। बोलने वक्त सोचना या सोचते वक्त बोलना तो इन्हें ही है, मिहनत तो इन्हीं को करनी है।

शायद अब कोरम के लायक लोग जुड़ चुके थे। तभी तो उन्होंने मुस्कान बिखेरते हुए कहा, “लगता है अभी आप मुझे सुन पा रहे हैं। मैं सत्य-अहिंसा बोल …माफ करिए, मैं मोहनदास करमचंद गांधी बोल रहा हूं। बहुत दिनों बाद लाइव हो रहा हूं। आंदोलन में व्यस्त था…खैर कोई बात नहीं, जब मैं लाइव नहीं था तब भगत सिंह लाइव थे, भगत सिंह जब लाइव नहीं हो पाए तो अंबेडकरजी लाइव थे…देश के स्क्रीन पर कोई न कोई लाइव रहते ही हैं। कल शाम नेहरू बोले थे, उससे पहले नेताजी जापान से लाइव हुए थे, मैं चाहता हूं सब लोग अपने-अपने रास्ते पर इसी तरह लाइव रहें ताकि एक दिन आजादी भी जल्दी लाइव हो सके और वह भी कह सके-“मैं आजादी बोल रही हूं, सम्पूर्ण आजादी, आप सुन पा रहे हैं? मैं खंडित नहीं हूं, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक होने के नाम पर मैं टुकड़ों में नहीं आई…”।…लेकिन आजादी से भी ज्यादा जरूरी है आत्म- निर्भर और स्वच्छ भारत अन्यथा देश ही ‘अलाइव’ नहीं रह पाएगा और मेरी पहली चिंता देश है…अभी दो चार और जुड़ जाएँ तो बात शुरू करूँ, तबतक जो भी हैं मेरे साथ गाएं-ईश्वर-अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति …अच्छा, लगता है सरदार पटेल जुड़ गए, वल्लभ भाई, नमस्कार…अब ये भजन सुनिए …वैष्णव जन ते तेणें कहिए जे…अच्छा चर्चिल भी आ गए, गुड माॅर्निंग मि चर्चिल ! होप यू आर फाइन, लीजिए रूजवेल्ट भी पधारे, लेनिन भी…तो मैं भी बोलूं …मि जिन्ना आ गए लगता है ..सलाम मि जिन्ना ! लेकिन जवाहरलाल नहीं आए हैं अभी तक? नहीं, नहीं, गुलाब दिख रहा है , वे भी आ गए। जवाहरलाल आप मुझे सुन पा रहे हैं? … मौलाना आजाद कहां रह गए? अंबेदकरजी भी नदारद हैं …मेसेज तो सावरकर को भी भेजा था …और दो चार लोग आ जाएँ तो मैं सत्य-अहिंसा के आध्यात्मिक द्वंद्ववाद पर बोलूं, उसके बाद स्वतंत्रता- संघर्ष बनाम वर्ग- संघर्ष पर बात होगी, हिन्दू-मुसलमान पर तो विस्तार से कहना ही है, सबसे ज्यादा कहना जरूरी है आजादी के बाद कांग्रेस की उपयोगिता और उसके संभावित स्वरूप पर क्योंकि कांग्रेस पार्टी नहीं जन-आंदोलन है। गण-आंदोलन और मन-आंदोलन बेशक अलहदा विषय हैं। …मि जिन्ना, आप उदास क्यों लग रहे हैं? अरे, आप भी लाइव होइए तो उदासी दूर हो , खाली पाक-स्थान पर फ़िक्रमंद मत रहिए, वह तो मेरी लाश पर ही बनेगा…मैं जबतक जिंदा हूं, अक्खा हिन्दुस्तान हूं, मरने के बाद ही मैं पाकिस्तान हूं … आप सुन पा रहे है जमनालाल बजाज भाई? …लीजिये अंबेडकरजी भी आ गए, बड़ी खुशी की बात है, बहुत अच्छा लग रहा है कि ये सब मुझे अभी भी सुनना चाहते हैं…आप मुझे सुन पा रहे हैं मौलाना आजाद जी? आपके बिना मेरा लाइव क्या, हिन्दुस्तान ही अधूरा है। हिन्द की एक आंख की बची-खुची चमक हैं आप, भले ही मि जिन्ना अपनी दोनों आंखें चमकाते फिर रहे हैं, माफ करें मि जिन्ना, मेरा मकसद आपको आहत करने का नहीं है…।”

लाइव शो जारी था। देश-विदेश से लोग जुड़ते जा रहे थे। छिट-पुट प्रतिक्रियाएं भी आने लगी थीं। बापू का मुख-मंडल और गंभीर हुआ जा रहा था। बीच-बीच में पूछना नहीं भूलते थे-“क्या आप मुझे सुन पा रहे हैं?”

तभी बापू के पीछे कोई झोला लटकाए बदहवास आकर खड़ा हो गया और कहने लगा-” क्या आप लोग मुझे देख पा रहे हैं?” मैं भी चौंक पड़ा कि बीच में कौन आ धमका लेकिन मुझे लगा इस आदमी का प्रशन बड़ा सूक्ष्म है। बापू के आस-पास कोई भी खड़े हो जाएँ, उसे कहना ही पड़ेगा-“आप मुझे देख पा रहे हैं?”

बापू भी कम संवेदनशील नहीं थे। वे अपनी जगह छोड़ बाजू कहीं ओझल हो गए कहते हुए कि आप तत्काल इन्हें देख दीजिए, यह कोई कवि लगते हैं, लिखने से ज्यादा शायद दिखने की जल्दी में रहते हैं।” कवि थोड़ा सकुचाए और फूट पड़े-“बापू, आप सचमुच वैष्णव जन हैं, पीर पराई जानते हैं आप, तीन दिनों से उन सबको जो मेरे हरेक पोस्ट को लाइक कर रहे थे, बड़ी-बड़ी टिप्पणी लिख रहे थे, मैं मैसेज भेज रहा था- “आज ठीक ….बजे शाम को मैं लाइव रहूंगा” और बापू , शाम क्या रात हो गई, कोई जुड़ा ही नहीं, फिर भी पूछता ही रहा- मित्र, आप मुझे सुन पा रहे हैं? ” तब देखा, आप लाइव हैं और यहां बड़े-बड़े लोग बड़ी संख्या में जुड़ चुके हैं…चर्चिल जैसा ह्यूमरस…जिन्ना जैसा ट्यूमरस…न्यूमरस आडिएंस..नेहरूजी, घोर राजनीतिक उथल पुथल में खो गया एक अंग्रेजी कवि…अभी वो राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त भी दिख रहे हैं…अरे प्रेमचंद भी…बापू तूसी ग्रेट है…ऐसा मौका दिया मुझे, लोगों को पता चलेगा राजनीति के बीच में कविता का ब्रेक कितना जरूरी है, अपने लाइव के बीच में मेरा उदय बस ब्रेक ही समझ लो बापू…मैं निराश नहीं करूंगा, भले ही मैं खुद कितना भी निराश रहूं…अरे ये क्या बापू, अब आप भी मेरे लाइव में?…”

शो देखकर मेरी उदासी थोड़ी कम तो हुई लेकिन जबतक बापू आकर दुबारा खुद लाइव होते…दर्शक लाइव से बाहर हो चुके थे। देखने-सुननेवाला कोई नहीं था। फिर भी कवि जोर-जोर से पूछ रहा था-आप सब मुझे सुन पा रहे हैं?”

 

  ©दिलीप दर्श, गोवा                                                                             

परिचय:- 15 सालों से कहानी, कविता, गजल, समीक्षा, व्यंग्य लेखन। कविता- संग्रह “सुनो कौशिकी” एवं कहानी- संग्रह “ऊंचास का पचास” प्रकाशित। सम्प्रति: सरकारी बैंक में कार्यरत। पता : वास्को दा गामा, गोवा।

 

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