धर्म

ब्राह्मण लेना नहीं मात्र देना ही जानता है …

‘प्रत्येक जीव द्वारा मन में किए निवेदन को भी, पूर्व जन्म में कही बात को भी भगवान सुन लेते हैं, समझते हैं। इसलिए कभी भी मन में विकार नहीं लाना चाहिए।’ आज श्रीमद् भागवत कथा के चौथे दिन कथावाचक डॉ. दीपिका उपाध्याय ने भक्त और भगवान के अंतर्संबंध को व्यक्त करते हुए यह कहा। ब्राह्मण कभी भी किसी के द्वार पर कुछ मांगने नहीं आता बल्कि वह देने ही आता है। देवगुरु बृहस्पति और देवराज इंद्र के प्रसंग में यह बात सिद्ध होती है। जब देवराज इंद्र की अवहेलना से रुष्ट होकर देवगुरु अंतर्धान हो जाते हैं तब देवराज इंद्र को समझ आता है कि वास्तव में उनके स्वर्ग लोक और राज्य की रक्षा देव गुरु बृहस्पति ही कर रहे थे।

दूसरे पुरोहित के रूप में विश्वरूप का वरण देवताओं के लिए आत्मघाती ही सिद्ध होता है क्योंकि वह देवों के साथ असुरों को भी आहुति देते हैं। यह प्रसंग बताता है एक सद्गुरु का मिलना कितना सौभाग्य की बात है। न जाने पूर्व जन्म के कितने पुण्य चलते हैं तब कहीं जाकर सद्गुरु का दर्शन होता है।

हिरण्यकशिपु प्रसंग में भक्त और भगवान के प्रगाढ़ प्रेम का सुंदर उदाहरण मिलता है। प्रहलाद को कष्ट पाते देखकर भगवान विकराल रूप धारण कर लेते हैं जबकि गजेंद्र की रक्षा के लिए नंगे पांव ही दौड़े चले आते हैं। गजेंद्र के पूर्व जन्म की कथा यह बताती है कि संन्यासियों के साथ-साथ गृहस्थ भी समाज के लिए अनिवार्य हैं।

राजा इंद्रद्युम्न को अगस्त ऋषि के श्राप के कारण गजेंद्र रूप में आना पड़ा क्योंकि वे गृहस्थ जीवन निर्वाह करने की योग्यता रखने के बाद भी संन्यासी धर्म का पालन कर रहे थे। यदि सभी गृहस्थ समाज से विरक्त हो जाएंगे तो ब्राह्मणों का सत्कार कौन करेगा, कौन परंपराओं का निर्वाह करेगा, कौन सृष्टि चक्र चलाएगा, कौन धर्म की रक्षा करेगा और कौन पुरुषार्थ चतुष्टय की श्रेष्ठता सिद्ध करेगा? भगवान का श्रीराम अवतार जहां मर्यादा के अत्यंत सौम्य स्वरूप को प्रदर्शित करता है, वहीं परशुराम अवतार यह दिखाता है कि मर्यादा के निर्वाह एवं धर्म की स्थापना के लिए उग्र रूप धारण करना भी कभी-कभी अनिवार्य हो जाता है।

डॉ. दीपिका उपाध्याय ने श्रीकृष्ण जन्म की भूमिका का वर्णन करते हुए कहा जब जब होई धरम की हानि।बाढ़हिं असुर महा अभिमानी।।तब तब धरि प्रभु मनुज सरीरा। हरहिं सकल सज्जन भव पीरा।।

द्वापर अपने अवसान की ओर जा रहा था और दंभी राजाओं के अत्याचार बढ़ते जा रहे थे। ऐसे कठिन काल में भगवान का सोलह कलाओं से युक्त अवतरण  हुआ। भाद्रपद की काली अंधियारी रात में भगवान प्रकटे, जो इस बात का प्रतीक है कि अधर्म पर धर्म की विजय शीघ्र ही होने वाली है।

भगवान के प्रकट होते ही वातावरण मनोरम हो गया, मानो उनका स्वागत कर रहा हो।यमुना की लहरें शांत हो गई क्योंकि वह जानती थी कि वे कृष्ण की चौथी पटरानी बनेंगी। कृष्ण अवतार में शेष भगवान से पहले अवतरित हुए क्योंकि वे जानते थे कि भगवान के जन्म के समय उन्हें छत्र रूप में भगवान की सेवा करनी है। भगवान कृष्ण का अवतार युग- युगांतर तक प्रकृति ही नहीं बल्कि मनुष्यों को भी प्रसन्न करने के लिए हुआ था इसीलिए कृष्ण जन्म की कथा आज हजारों वर्ष बाद भी कहने और सुनने में उतना ही आनंद देती है, मानो साक्षात् हो रही हो।

 श्रीगोपाल धाम, आगरा में चल रही यह ऑनलाइन कथा 2 जुलाई तक चलेगी। प्रतिदिन शाम 4:00 से 6:00 बजे तक चलने वाली यह कथा पंडित गोपाल दास शर्मा की पुण्य स्मृति में चल रही है।

 

©डॉ. दीपिका उपाध्याय, आगरा                 

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