लेखक की कलम से

पंछी …

वक्त के हाशिए पर बैठे

मैं सोचती ही रह गई,

और पंछी बन कर जिंदगी जाने कहां उड़ गई,

लम्हों को समेटने चली थी

और खुद ही बीते हुए पलो

मै खो गई,

सायों के बीच रहते अपने

ही साए को खो बैठी

अपने आप को यहां वहां

ढूंढ़ती ही रह गई

जाने कब किस पल में

अपने आपको कहां गवां बैठी।

 

©हरप्रीत कौर, कानपुर, उत्तरप्रदेश          

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