लेखक की कलम से

औरत होना…

औरत होना शायद कभी असल में

फख्र होना हुआ ही नहीं होगा, मैं ऐसा मानती हूँ

मन करता है स्वर्ग की अप्सराओं से मिल

उनके दर्द सांझा करूं

जन्नत की हूरों को गले लगा

उन्हें खुलकर रोने के लिए

अपनी कमज़ोर बाहें ही दे पाऊं

रोते समय सर रखने के लिए मजबूत कांधे नहीं

मज़बूत मन की जरूरत होती है

मैं धरती नामक स्वर्ग की एक

अदना सी औरत हूँ

इस स्वर्ग में नर्क जैसी तमाम यातनाएँ मौजूद हैं

धरती की औरत यातनाओं के दर्द ,पीड़ा झेलती झेलती

भीतर से मजबूत हो चुकी है

हां मगर औरत होना एक गुनाह होना है

ठीक से याद नहीं मैंने कब समझ लिया

मैं कोई वस्तु हूँ जिसे औरत का जिस्म मिला है

धरती के सब पुरुष खुद को देवता समझते हैं

इस अधिकार से वो किसी भी रिश्ते में हों

वो हमारा उपभोग कर सकते हैं

सिर पर हाथ फेरते-फेरते वो

जिस्म को नापने लगते हैं

धूर्त मुस्कान को भांजी, भतीजी, दोस्त के रिश्ते की

चाशनी में लिपटी वासना से भरी सोच से

औरत के जिस्म को भेद-भेद कर छलनी कर देते हैं

दफ़्तर में, स्कूल में, कालेज में

बुद्धि जीवियों के औरत पर सम्मान समारोहों में

घर में, बाज़ार में, बस में, ट्रेन में,

कहीँ भी, किसी भी कोने में

पुरुष; औरत को खा जाने का अधिकार रखता है

प्रेम के छल से हाथ पकड़ बिस्तर तक ले जाने का अधिकार

धरती के कथित पुरुष देवताओं को उपलब्ध है

मैं औरत अगर उनके अशलील कहकहों में

साथ न हंसू और ऊलजलूल, फिज़ूल के इश्क़ के

किस्सों में खुलकर न बात करूँ

तो मेरे चरित्र पर उंगली उठाने का अधिकार

पुरुष को प्राप्त है

धरती पर औरत होना

एक गुनाह है जिसकी सजा वो

बार-बार हर जगह, हर रिश्ते के पुरुष से ले

अंतिम संस्कार तक भुगतती रहती है

सब को खुद पर अधिकार करने देने वाली औरत

घर में, समाज में,

पिता से, भाई से, पति से, दोस्त से

अपने ही अधिकार के लिए संघर्ष करती रहती है

मगर मैं जानती हूँ

मैं सागर भी हूँ

मैं पृथ्वी भी हूँ

मैं ही आकाश भी हूँ

दुर्गा हूं तो काली भी हूँ

©सीमा गुप्ता, पंचकूला, हरियाणा

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