लेखक की कलम से

कमतर है उम्र-ए-दराज़ …

 

कमतर है उम्र-ए-दराज़,

मैं चला जाऊंगा,

तेरे कदमों में जन्नत बिछा दूं तो  चलूं ,

मैं चला जाऊंगा।

 

वो तेरा पैराहन,

वो मेहंदी रचे हाथ,

वो तेरी महकी हुई जुल्फें,

तेरी जुल्फों के साए में,

शाम गुजारूं तो चलूं ,

कमतर है उम्र-ए-दराज़,

मैं चला जाऊंगा।

 

भटकता रहा ज़माने में,

दीवानों की तरह दर-बदर,

कितने ही दाग लगे,

मेरे किरदार पर,

उन दागों को तेरे अश्कों से धो लूं तो चलूं ,

कमतर है उम्र-ए-दराज़,

मैं चला जाऊंगा।

 

कुछ गुनाहों का रहा मलाल उम्र भर,

ज़माने ने दिए ज़ख्म इस कदर,

किसी ने भी उन्हें देखा नहीं क़रीब से,

यूं ही रिसते रहे उम्र भर,

तेरी जानिब से ज़रा मरहम लगा लूं तो चलूं ,

कमतर है उम्र-ए-दराज़,

मैं चला जाऊंगा।

 

यूं तो पी गए समुंदर मय का,

पर मेरे होठों की तिश्नगी बढ़ती ही गई,

आज तेरी आंखों के पैमाने से,

पी लूं तो चलूं ,

कमतर है उम्र-ए-दराज़,

मैं चला जाऊंगा।

 

हर तरफ बिखरे पड़े हैं ज़माने में आग के शोले,

पथरीली राहें हैं कांटो भरी,

ना पड़ें तेरे पैरों में छाले,

तेरी राहों में फूल बिछा दूं तो चलूं,

कमतर है उम्र-ए-दराज़,

मैं चला जाऊंगा।

तेरे कदमों में जन्नत बिछा दूं तो चलूं ,

मैं चला जाऊंगा।

 

कैसे सह लोगी ज़माने की कड़कती धूप,

सुलगती हवाओं के थपेड़े,

तेरे लिए अपने एहसासों का,

शामियाना बना लूं तो चलूं ,

मैं चला जाऊंगा।

कमतर है उम्र-ए-दराज़,

तेरे कदमों में जन्नत बिछा लूं तो चलूं ,

मैं चला जाऊंगा।

 

बस आखरी इल्तज़ा है मेरी,

चांद-तारों के आसमान का,

कफ़न मेरा बना देना,

मेरी कब्र पर गुलाब सजा देना,

रात की ठंडी शबनम से कहना,

मेरी लहद पर आफशानी करे,

शबनम की बूंदों को,

पलकों में सजा लूं तो चलूं ,

मैं चला जाऊंगा।

तेरे कदमों में जन्नत बिछा दूं तो चलूं ,

मैं चला जाऊंगा।

 

©लक्ष्मी कल्याण डमाना, छतरपुर, नई दिल्ली

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