लेखक की कलम से
भ्रम …
देखती हूं जिस तरफ
जहां कहीं
न जाने कितनी आंखें
लगती हैं परिचित सी।
भ्रम होता है, एक क्षण को,
कितनी महान है
मेरी हस्ती।
परंतु तभी रफ्तार जीवन की,
आड़े आ जाती है।
वो आंखें,
चली जाती हैं दूर,
खोजती हुई
किसी और को।
खयाल आता है तभी,
उन आंखों की खोज
मैं नहीं, कोई और है।
परंतु टकराती हैं मेरी
आंखों से
खोजती हुई, ढूंढती सी।
हो जाती हूं भ्रमित,
उनकी खोज मैं ही हूं।
©अर्चना त्यागी, जोधपुर